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मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया

हिंदी फ़िल्म संगीत का इतिहास केवल मनोरंजन की कथा नहीं, बल्कि भारतीय समाज के अंतःसंसार का जीवंत दस्तावेज़ भी है। इस इतिहास में कुछ गीतकार ऐसे हुए जिन्होंने प्रेम, विरह और सौंदर्य के पार जाकर मनुष्य, व्यवस्था और सत्ता से प्रश्न किए। इन्हीं में सबसे तेजस्वी नाम है साहिर लुधियानवी। उनके फ़िल्मी गीत केवल धुनों के साथ बँधी भावनाएँ नहीं, बल्कि प्रगतिशील चेतना के घोष-पत्र हैं। उन्होंने सिनेमा के लोकप्रिय माध्यम को सामाजिक आलोचना की धार प्रदान की और शोषण, युद्ध, वर्गभेद, स्त्री-पीड़ा और मानवीय गरिमा जैसे विषयों को गीतों के केंद्र में रखा।
चित्र : गूगल से साभार



        साहिर लुधियानवी का साहित्यिक संस्कार प्रगतिशील लेखक संघ की विचारधारा से गहराई से जुड़ा हुआ था। उर्दू शायरी की परंपरा में पले-बढ़े साहिर ने रोमैंटिक भाषा को सामाजिक यथार्थ से जोड़ा। उनके लिए कविता सत्ता-प्रतिष्ठानों की शोभा बढ़ाने का साधन नहीं, बल्कि अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का शस्त्र थी।लाहौर में साहिर ने ‘अदब-ए-लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया, लेकिन प्रगतिशील विचारों के कारण पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारंट जारी कर दिया। 1949 में वे भारत आ गए और मुंबई में ‘शाह राह’ व ‘प्रीतलड़ी’ पत्रिकाओं से जुड़े। फिल्मी दुनिया में ‘बाजी’, ‘नौजवान’ और ‘साधना’ जैसी फिल्मों के गीतों से उन्होंने प्रसिद्धि पाई। फ़िल्मों में आने के बाद भी उन्होंने इस वैचारिक निष्ठा को त्यागा नहीं। जहाँ अधिकांश गीतकार प्रेम को निजी अनुभूति तक सीमित रखते थे, वहीं साहिर ने प्रेम को सामाजिक अन्याय के संदर्भ में देखा। उनकी दृष्टि में प्रेम भी तभी सार्थक है जब समाज न्यायपूर्ण हो। 
        साहिर लुधियानवी के फिल्मी गीत प्रगतिशील विचारधारा के प्रखर वाहक हैं, जो नारी शोषण, मजदूर वर्ग के संघर्ष, युद्ध की विभीषिका और सामाजिक असमानता के खिलाफ विद्रोह की आवाज बुलंद करते हैं। उनके गीतों में व्यक्तिगत अनुभवों से उपजा करुण रोष सार्वभौमिक मानवतावादी संदेश बन जाता है, जो पितृसत्तात्मक समाज और पूंजीवादी शोषण को चुनौती देता है साहिर की प्रगतिशील चेतना किसी राजनीतिक दल का घोषणापत्र नहीं, बल्कि मनुष्यता के पक्ष में खड़ी एक आंतरिक नैतिक क्रांति है। वे प्रेम को भी सामाजिक प्रश्नों से अलग नहीं देखते। उनकी दृष्टि में जब तक समाज न्यायपूर्ण नहीं होगा, तब तक प्रेम भी अधूरा रहेगा।“ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है”—सिर्फ़ एक असफल कवि की चीख़ नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था के विरुद्ध एक मौन विद्रोह है। इसमें महलों, ताजों और तख़्तों की भव्यता के पीछे छिपे हुए खोखलेपन को उघाड़ दिया गया है। यह गीत बताता है कि जब समाज का आधार अन्याय हो, तो सारी सफलता, सारी प्रतिष्ठा व्यर्थ है। 
        साहिर ने श्रमिक जीवन को पहली बार फ़िल्मी गीतों में सम्मान की भाषा दी। उनके गीतों में मज़दूर कोई दीन-हीन पात्र नहीं, बल्कि इतिहास का रचयिता है। फ़िल्म नया दौर का गीत—“साथी हाथ बढ़ाना”—सामूहिकता का एक ऐसा महामंत्र है, जो अकेलेपन की दीवारों को तोड़ता है। यह गीत केवल काम करने की प्रेरणा नहीं देता, बल्कि यह विश्वास जगाता है कि परिवर्तन अकेले नहीं, साथ चलकर आता है।इसी तरह फ़िल्म धूल का फूल का मानवीय गीत—“तू हिन्दू बनेगा न मुस्लिम बनेगा”—एक सम्प्रदायमुक्त समाज की स्पष्ट कल्पना करता है। यह गीत धर्म को नहीं, मनुष्यता को सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थापित करता है। 
        साहिर के गीतों में स्त्री केवल प्रेम की प्रतिमा नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय की सबसे गहरी शिकार भी है। उनके यहाँ स्त्री करुणा का विषय नहीं, बल्कि एक प्रश्न है—जिसके उत्तर समाज को देने हैं। फ़िल्म साधना में लिखे गीत वेश्या जीवन के अँधेरे को उजाले में लाते हैं। यहाँ स्त्री ‘पाप’ की प्रतीक नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की शिकार है, जो उसे पहले गिराती है और फिर उसे ही कलंकित करती है। यह दृष्टि अपने समय से बहुत आगे की थी। 
        साहिर की प्रगतिशीलता केवल करुणा नहीं, आलोचना भी है। वे विकास और आधुनिकता के नाम पर खड़ी की जा रही झूठी चमक से प्रभावित नहीं होते। उनके गीत चमकदार शहरों के पीछे छिपे अकेलेपन और नैतिक दरिद्रता को उजागर करते हैं। फ़िल्म वक्त के गीतों में समय केवल घड़ी की सुई नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय का साक्षी बन जाता है। ‘वक्त’ साहिर के लिए एक ऐसा प्रतीक है, जो हर मनुष्य से पूछता है—तुम किस कीमत पर यह सुविधा भरा जीवन जी रहे हो? 
         निर्देशक गुरुदत्त के साथ साहिर की रचनात्मक सहभागिता हिंदी सिनेमा का एक स्वर्ण अध्याय है। फ़िल्म काग़ज़ के फूल में गीत कथा के समानान्तर नहीं, बल्कि उसकी आत्मा बन जाते हैं। यहाँ गीत केवल भावनाएँ नहीं रचते, बल्कि दर्शक की नैतिक चेतना को झकझोरते हैं। यह सहयोग कला और विचार के दुर्लभ संतुलन का उदाहरण है। 


         साहिर की सबसे बड़ी ताक़त उनकी भाषा है। उन्होंने जटिल राजनीतिक विचारों को सरल शब्दों की धुन पर बैठा दिया। उनकी प्रगतिशीलता भाषणों की तरह बोझिल नहीं, बल्कि नदी की तरह स्वाभाविक है। उनके गीतों में हमें नारा नहीं, सवाल मिलते हैं। और सवाल ही वह बीज होते हैं, जिनसे बदलाव की फसल उगती है। फिर भी साहिर कोई पूर्ण क्रांतिकारी संत नहीं थे। कुछ गीतों में वे नियति, समय और भाग्य के आगे असहाय दिखते हैं। कई बार उनका विद्रोह बाहरी व्यवस्था से अधिक आंतरिक पीड़ा बन जाता है। लेकिन यही विरोधाभास उन्हें और मानवीय बनाता है। वे पत्थर नहीं, जीवित मनुष्य थे—संवेदनाओं से भरे हुए। 
       साहिर ने यह सिद्ध किया कि फ़िल्मी गीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जनचेतना का विश्वविद्यालय हो सकते हैं। उन्होंने वह रास्ता चुना, जहाँ लोकप्रियता और वैचारिक ईमानदारी एक-दूसरे की विरोधी नहीं, बल्कि सहयात्री बन सकें। आज, जब फ़िल्मी गीत अक्सर केवल शरीर और बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमते हैं, साहिर की पंक्तियाँ एक स्मृति की तरह नहीं, बल्कि एक चेतावनी की तरह सामने खड़ी होती हैं—कि शब्दों की भी एक नैतिक ज़िम्मेदारी होती है। 
        साहिर लुधियानवी के फ़िल्मी गीतों की प्रगतिशीलता किसी युग की वस्तु नहीं, बल्कि एक सतत चेतना है। उनके शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने अपने समय में थे। वे हमें यह सिखाते हैं कि सच्ची कला वही है, जो सत्ता से प्रश्न करे, अन्याय से टकराए और मनुष्य के पक्ष में खड़ी हो। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने फ़िल्मी गीत को सजावट नहीं रहने दिया—उसे विवेक बना दिया। और शायद यही कारण है कि उनके गीत आज भी हवा में तैरते हैं। नई पीढ़ियों को जागृत करने के लिए, नई सुबह की तलाश मे। 
        साहिर की रचनात्मकता पूर्णतः निष्कलुष नहीं थी। कुछ गीतों में वे भी तत्कालीन फ़िल्मी समाज की माँगों के अनुसार पारंपरिक रोमांटिक रूढ़ियों को अपनाते दिखाई देते हैं। कभी-कभी उनका विद्रोह व्यवस्था पर सीधे प्रहार करने के बजाय दर्शन और नियति की ओर मुड़ जाता है।परंतु यह उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि उनके भीतर चल रहे नैतिक संघर्ष का प्रमाण है। 
         एक फ़िल्मी गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी ने सिनेमा को केवल मनोरंजन उद्योग नहीं रहने दिया—उसे सामाजिक संवाद का मंच बनाया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि लोकप्रियता और प्रतिबद्धता एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने शब्दों को बाज़ार का गुलाम बनने से बचाया। आज जब गीत विज्ञापन की भाषा बनते जा रहे हैं, साहिर के गीत हमें याद दिलाते हैं कि शब्द केवल बिकने की चीज़ नहीं—वे समाज की आत्मा भी होते हैं। साहिर लुधियानवी हिंदी सिनेमा के इतिहास में केवल एक गीतकार नहीं, बल्कि एक विचारधारा का नाम हैं—एक ऐसा नाम, जो आज भी सवाल बनकर हमारे भीतर गूंजता है।

संपर्क : आदित्य विक्रम सिंह 
may2fair@gmail.com 
लेखक भारतीय रेलवे के एक उपक्रम में कार्यरत है।  


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